Sahitya Kya Hai【हिंदी साहित्य इतिहास】Hindi Sahitya Ka Itihas

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किसी भी भाषा का वर्तमान साहित्य अपने अंदर एक बहुत बड़ा इतिहास समेटे हुए है, अगर बात हिन्दी साहित्य की हो तो इसके विकास में बहुत से लेखकों ने अपना अमूल्य योगदान दिया है।

Hello Friends, स्वागत है आपका हमारे ब्लॉग पर आज हां बात करने जा रहे है हिन्दी साहित्य के इतिहास के बारे में, इसके अलग-अलग कालखंडों और लेखकों के बारे में विस्तार से जानेंगे, उम्मीद करता हूँ आपको यह पसंद आएगा।

Hindi Sahitya Ka Itihas
Sahitya Kya Hai | Hindi Sahitya Ka Itihas

Sahitya Kya Hai –

हिंदी साहित्य को दो भागों में बांटा गया है, जिसमें पहला है “गद्य साहित्य” जिसमें विचारों या भावों को सहज, सरल और सामान्य भाषा में विशेष प्रयोजन सहित उल्लेख देखने को मिलता है, ज्ञान-विज्ञान से लेकर कथा साहित्य आदि की अभियक्ति का सबसे आसान मध्यम, साधारण व्यवहार की भाषा गद्य ही है।

हिंदी साहित्य का दूसरा भाग है, “पद्य साहित्य” जिसे “काव्य” भी कहा जाता है, इसमें रचनाओं को कविता के रूप में पढ़ने को मिलती है और उनमें छिपे भावार्थ को समझना होता है।

गद्य और पद्य में अन्तर –

विषय की दृष्टि से गद्य और पद्य में यह अन्तर है कि गद्य के विषय विचार-प्रधान और पद्य के विषय भाव-प्रधान होते हैं। दूसरी भाषाओं के समान इस भाषा के साहित्य में भी पद्य का अवतरण गद्य के बहुत पहले हुआ है।

पद्य साहित्य में में कार्य की अनुभूति, उक्ति – वैचित्र्य, सम्प्रेषणीयता और अलंकार की प्रवृत्ति देखी जाती है, जबकि गद्य साहित्य में लेखक अपने विचारों को व्यक्त करता है।

गद्य में तर्क, बुद्धि, विवेक, चिन्तन का अंकुश होता है तो पद्य में स्वतन्त्र कल्पना की उड़ान होती है। गद्य में शब्द, वाक्य; अर्थ आदि सभी प्रायः सामान्य होते हैं, जबकि पद्य में विशिष्ट।

कविता शब्दों की नयी सृष्टि है, इसलिए इसका कोई भी शब्द कोशीय अर्थ से प्रतिबन्धित नहीं होता, जीवन की अनुभूतियों से उसका भावात्मक सम्बन्ध होता है, जबकि गद्य भावात्मक सन्दर्भों के स्थान पर वस्तुनिष्ठ प्रतीकात्मक अर्थ ग्रहण करता है।

गद्य को ‘निर्माणात्मक अभिव्यक्ति’ कहा गया है अर्थात् ऐसी अभिव्यक्ति जिसमें निर्माता के चारों ओर प्रयोग के लिए तैयार शब्द रहते हैं।

गद्य की भाषा काव्य की अपेक्षा अधिक स्पष्ट, व्याकरणसम्मत और व्यवस्थित होती है। उक्ति-वैचित्र्य और अलंकरण की प्रवृत्ति भी गद्य की अपेक्षा काव्य में अधिक होती हैं।

गद्य साहित्य में शब्दों का विस्तार अधिक होने के कारण किसी बात को खोलकर कहने की प्रवृत्ति (आजादी) रहती है, जबकि काव्य में किसी बात को संकेत (संक्षेप) रूप में ही कहने की प्रवृत्ति होती है।

गद्य में यथार्थ, वस्तुपरक और तथ्यात्मक वर्णन पाया जाता है, जबकि काव्य में वर्णन सूक्ष्म, संकेतात्मक होता है।

गद्य में आमतौर पर वाक्य पूर्ण होते है, शायद ही कोई अपूर्ण वाक्य देखने को मिलते, जबकि इसके उलट काव्य में अधिकांशतः वाक्य अधूरे ही होते है, शायद ही कोई वाक्य पूर्ण देखने को मिलते है।

इस प्रकार देखा जाय तो… गद्य और पद्य विषय, भाषा, प्रस्तुति, शिल्प आदि की दृष्टि से अभिव्यक्ति के सर्वथा भिन्न दो रूप हैं और दोनों के दृष्टिकोण एवं प्रयोजन भी भिन्न होते हैं।

गद्य साहित्य में व्याकरण के नियमों को ध्यान में रखना पड़ता है, ताकि उसका उद्देश्य स्पष्ट हो सके, जबकि पद्य (काव्य) में व्याकरण के नियमों पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।

हालांकि ऐसा नहीं है कि गद्य में भावपूर्ण चिन्तनशील मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती और ऐसा भी नहीं है कि पद्य में विचारों की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती, साधारण रूप में कहें तो मुख्य रूप से गद्य एवं पद्य की प्रकृति उपर्युक्त प्रकार की ही होती है।

गद्य क्या है? –

छन्द, ताल, लय एवं तुकबन्दी से मुक्त तथा विचारपूर्ण एवं वाक्यबद्ध रचना को ‘गद्य’ कहा जाता है, “गद्य” शब्द ‘गद्’ धातु के साथ ‘यत्’ प्रत्यय जोड़ने से बनता है, जिसमें ‘गद्’ का अर्थ होता है-बोलना, बतलाना या कहना, सामान्यतः दैनिक जीवन में प्रयुक्त होनेवाली बोलचाल की भाषा में गद्य का ही प्रयोग होता है।

गद्य का लक्ष्य विचारों या भावों को सहज, सरल एवं सामान्य भाषा में विशेष प्रयोजन सहित श्रोता तक सूचना का प्रदान करना है, ज्ञान-विज्ञान से लेकर कथा-साहित्य आदि की अभिव्यक्ति का माध्यम साधारण व्यवहार की भाषा गद्य ही है, जिसका प्रयोग सोचने, समझने, वर्णन, विवेचन आदि के लिए होता है।

बोलने वाला व्यक्ति (वक्ता) जो कुछ सोचता है, उसे उसी समय गद्य के रूप में व्यक्त भी कर सकता है, ज्ञान-विज्ञान की समृद्धि के साथ ही गद्य की उपादेयता और महत्ता में वृद्धि होती जा रही है।

किसी लेखक या कवि के हृदयगत भावों को समझने के लिए ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है और गद्य ज्ञान-वृद्धि का एक बहुत सफल साधन है, यही कारण है कि इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, धर्म, दर्शन आदि के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि नाटक, कथा-साहित्य आदि में भी इसका एकछत्र प्रभाव स्थापित हो गया है।

अगर इस बात पर विचार जाय तो आधुनिक हिन्दी-साहित्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना गद्य का आविष्कार ही है और गद्य का विकास होने पर ही हमारे साहित्य की बहुमुखी उन्नति भी सम्भव हो सकी है, हिन्दी गद्य के सम्बन्ध में यह धारणा है कि मेरठ और दिल्ली के आस-पास बोली जानेवाली खड़ीबोली के साहित्यिक रूप को ही हिन्दी गद्य कहा जाता है।

भाषा-विज्ञान की दृष्टि से ब्रजभाषा, खड़ीबोली, कन्नौजी, हरियाणवी, बुन्देलखण्डी, अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी इन आठ बोलियों को हिन्दी गद्य के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है, हिन्दी गद्य के प्राचीनतम् प्रयोग हमें ‘राजस्थानी’ एवं ‘ब्रजभाषा’ में मिलते हैं।

हिन्दी गद्य का स्वरूप और विकास –

हालांकि वर्तमान में प्रचलित हिन्दी भाषा खड़ीबोली का परिनिष्ठित एवं साहित्यिक रूप है, परन्तु खड़ीबोली स्वयं अपने आपमें कोई बोली नहीं है, इसका विकास कई क्षेत्रीय बोलियों के समन्वय के फलस्वरूप हुआ है।

एलविद्वानों ने इसके प्राचीन रूप पर आधारित तत्त्वों की खोज करने के बाद यह माना है कि खड़ीबोली का विकास मुख्यतः ब्रजभाषा एवं राजस्थानी गद्य से हुआ है।

कुछ विद्वान् इसको दक्खिनी एवं अवधी गद्य का सम्मिश्रित रूप भी मानते हैं, आज हिन्दी गद्य का जो साहित्यिक रूप है, उसमें कई क्षेत्रीय बोलियों का विकास दृष्टिगोचर होता है, हिन्दी गद्य के आविर्भाव को लेकर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं, कुछ लोग इसे दसवीं शताब्दी से मानते हैं तो बहुत से लोग तेरहवीं शताब्दी को मानते है।

‘राजस्थानी’ एवं ‘ब्रजभाषा’ में हमें गद्य के प्राचीनतम् प्रयोग मिलते हैं। राजस्थानी गद्य की समय-सीमा ग्यारहवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तथा ब्रजभाषा गद्य की समय-सीमा चौदहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक मानना उचित प्रतीत होता है।

अतः यह स्पष्ट है कि दसवीं ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी के मध्य ही हिन्दी गद्य का आविर्भाव हुआ था। अध्ययन की दृष्टि से हिन्दी गद्य साहित्य के विकास को निम्नलिखित कालक्रमों में विभाजित किया जा सकता है-

पूर्व भारतेन्दु-युग अथवा प्राचीन युग13 वीं शताब्दी से 1868 ई० तक
भारतेन्दु-युगसन् 1868 ई० से 1900 ई० तक
द्विवेदी युगसन् 1900 ई0 से 1922 ई० तक
शुक्ल-युग (छायावादी युग)सन् 1922 ई0 से 1938 ई० तक
शुक्लोत्तर युग (छायावादोत्तर युग)सन् 1938 ई0 से 1947 ई० तक
स्वातन्त्र्योत्तर युगसन् 1947 ई0 से अब तक

प्राचीन युगीन गद्य (पूर्व भारतेन्दु-युग) –

इस युग के अन्तर्गत हिन्दी गद्य के उद्भव से भारतेन्दु युग के पूर्व तक का समय लिया गया है। वस्तुतः हिन्दी गद्य साहित्य के आदिकाल में हिन्दी गद्य के प्राचीन रूप ही यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं।

राजस्थान व दक्षिण भारत में तो अवश्य हिन्दी गद्य के प्रारम्भिक रूप की झलक मिलती है, उत्तर भारत में ब्रजभाषा गद्य के ही उदाहरण अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं।

प्राचीन युग में काव्य-रचना के साथ-साथ गद्य-रचना की दिशा में भी कुछ स्फुट प्रयास लक्षित होते हैं, ‘राउलवेल’ (चम्पू), ‘उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण’ और ‘वर्णरत्नाकर’ इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।

कुछ विद्वान ‘राउलवेल’ को ही राजस्थानी गद्य की प्राचीनतम रचना मानते हैं, ‘राउलवेल’ एक शिलांकित कृति है, जिसका पाठ मुम्बई के ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ संग्रहालय से उपलब्ध कर प्रकाशित कराया गया है।

विद्वानों ने इसका रचनाकाल दसवीं शताब्दी माना है, इसकी रचना ‘राउल’ नायिका के नख-शिख वर्णन के प्रसंग में हुई है, आरम्भ में इस कृति के रचयिता ‘रोड़ा’ ने राउल के सौन्दर्य का वर्णन पद्य में किया है और फिर गद्य का प्रयोग किया गया है, दूसरी कृति ‘उक्ति-व्यक्ति प्रकरण’ है, जिसकी रचना महाराज गोविन्द चन्द्र के सभा-पण्डित दामोदर शर्मा ने बारहवीं शताब्दी में की थी।

इस ग्रन्थ की भाषा का एक उदाहरण कुछ इस प्रकार है- “वेद पढ़ब, स्मृति अभ्यासिब, पुराण देखब, धर्म करब।” इससे “गद्य” और “पद्य” दोनों शैलियों की हिन्दी भाषा में तत्सम शब्दावली के प्रयोग की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के बारे में पता चलता है।

मैथिली के प्राप्त ग्रन्थों में ज्योतिरीश्वर का वर्णरत्नाकर ग्रन्थ ऐसी तीसरी रचना है, मैथिली हिन्दी में रचित गद्य की यह पुस्तक डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी और पण्डित बबुआ मिश्र के सम्पादन में बंगाल एशियाटिक सोसायटी से प्रकाशित हो चुकी है, डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के मतानुसार इसकी रचना चौदहवीं शताब्दी में हुई होगी।

भारतेन्दु-युगीन गद्य –

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक आते-आते… हिन्दी साहित्य का आकाश भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (सन् 1850-1885) की रचनाओं के प्रकाश से जगमगा हो उठा।

उससे कुछ वर्ष पूर्व हिन्दी खड़ीबोली गद्य के क्षेत्र में दो महत्त्वपूर्ण व्यक्ति गद्य की दो भिन्न-भिन्न शक्तियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। एक थे राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द (सन् 1823-1895), दूसरे थे राजा लक्ष्मणसिंह (सन् 1826-1896)।

राजा शिवप्रसाद हिन्दी को पाठशालाओं के पाठ्यक्रम में स्थान दिलाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया था, वे हिन्दी का प्रचार तो चाहते थे किन्तु उसे नधिक नफ़ीस बनाकर उर्दू जैसा रूप प्रदान करने के पक्ष में थे।

दूसरी ओर राजा लक्ष्मणसिंह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के पक्षपाती थे, रतेन्दु ने इन दोनों सीमान्तों के बीच का मार्ग ग्रहण किया, उन्होंने हिन्दी गद्य को वह रूप प्रदान किया जो हिन्दी-प्रदेश की जनता मनोभावना के अनुकूल था।

आचार्य रतेन्दु का गद्य व्यावहारिक, सजीव और प्रवाहपूर्ण है, उन्होंने अपनी रचनाओं में यथासंभव लोक-प्रचलित शब्दावली का योग किया है, उनके वाक्य छोटे-छोटे और व्यंजक हैं।

कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों के यथोचित प्रयोग से उनकी भाषा प्राणवान् और स्वाभाविक बन गयी है, लेकिन इतना होने पर भी भारतेन्दु का गद्य पूर्ण परिमार्जित नहीं है, उनका गद्य भी ब्रजभाषा के प्रयोगों प्रभावित है और कहीं-कहीं व्याकरण में की गई गलतियाँ खटकती हैं।

द्विवेदी-युगीन गद्य –

सन् 1900 तक भारतेन्दु युग की समाप्ति माना जाता है, सन् 1900 से 1922 तक अर्थात् शताब्दी के पहले चरण को हिन्दी साहित्य में द्विवेदी-युग माना जाता है, द्विवेदी-युग को जागरण-सुधार काल भी कहा गया है।

हिन्दी गद्य साहित्य के इतिहास में पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी (सन् 1864-1938) का आविर्भाव एक महत्त्वपूर्ण घटना है, द्विवेदीजी रेलवे के एक साधारण कर्मचारी थे।

उन्होंने स्वेच्छा से हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी और बंगला भाषाओं का अध्ययन किया था, इसके बाद सन् 1903 में आपने रेलवे की नौकरी छोड़कर ‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादन आरम्भ किया, ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य की अभूतपूर्व सेवा की।

द्विवेदीजी ने व्याकरणनिष्ठ, संयमित, सरल, स्पष्ट और विचारपूर्ण गद्य के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, भाषा के प्रयोगों में एकरूपता लाने और उसे व्याकरण के अनुशासन में लाकर व्यवस्थित करने में द्विवेदीजी ने स्तुत्य प्रयास किया।

इसी समय बाबू बालमुकुन्द गुप्त उर्दू से हिन्दी में आये, उन्होंने हिन्दी गद्य को मुहावरेदार सजीव और परिष्कृत करने में पूरा-पूरा ध्यान दिया, ‘अनस्थिरता’ शब्द के प्रयोग को लेकर द्विवेदीजी से उनका विवाद प्रसिद्ध है।

इस युग में द्विवेदीजी के अतिरिक्त माधव मिश्र, गोविन्द नारायण मिश्र, पद्मसिंह शर्मा, सरदार पूर्णसिंह, बाबू श्यामसुन्दर दास, मिश्रबन्धु, लाला भगवानदीन, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि लेखकों ने हिन्दी गद्य के विकास में योग दिया।

इस युग में गद्य साहित्य के विभिन्न रूपों का विकास हुआ और गंभीर निबंध, विवेचनापूर्ण आलोचनाएँ तथा मौलिक कहानियाँ, उपन्यास और नाटक लिखे गये।

इसी युग में काशी में बाबू श्यामसुन्दर दास ने ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना की और हिन्दी के उपयोगी एवं गंभीर साहित्य के निर्माण की दिशा में स्तुत्य प्रयास किया, ‘सरस्वती’ पत्रिका के अलावा ‘इन्दु’, ‘सुदर्शन’, ‘समालोचक’, ‘प्रभा’, ‘मर्यादा’ और ‘माधुरी’ आदि पत्रिकाएँ इसी काल खंड प्रकाशित हुईं।

छायावाद युगीन गद्य –

वर्ष 1919 में पंजाब के जलियांवाला बाग में आयोजित सभा में निहत्थी जनता को गोलियों से भून दिया, इसके बाद 1920 के गांधीजी ने व्यापक असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया लेकिन दो वर्ष बाद ही यह आंदोलन स्थगित कर दिया

इसके लगभग 11 वर्षों बाद सन् 1931 में सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी भगतसिंह को फाँसी दी गयी, इन घटनाओं ने राष्ट्रीय चेतना को और दृढ़ किया।

युवकों का कल्पनाशील मानस कुछ कर गुजरने के लिए तड़पने लगा, इस युग में पराधीनता और विवशता की अनुभूति से आकुल होकर यदि कभी वेदना और पीड़ा के गीत गाये गये, तो दूसरे ही क्षण स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष की बलवती प्रेरणा से उत्साहित होकर स्फूर्ति और आत्म-विश्वास की भावना को मुखरित किया गया।

द्विवेदी युग सब मिलाकर नैतिक मूल्यों के आग्रह का युग था। इसलिए नवीन भावनाओं से प्रेरित युग-लेखक इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भाव तरल, कल्पना-प्रधान एवं स्वच्छन्द चेतना से युक्त साहित्य रचना में प्रवृत्त हुए। यह प्रवृत्ति कविता और गद्य दोनों ही क्षेत्रों में लक्षित होती है।

द्विवेदी युग के उत्तरार्द्ध में जो लेखक सामने आये थे वे छायावाद-युग में भी लिखते रहे और उनकी प्रौढ़तम रचनाएँ इसी युग में पुस्तकाकार प्रकाशित हुईं। इनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू गुलाब राय तथा पदुमलाल पुत्रालाल बख्शी प्रमुख हैं। इनकी साहित्य चेतना का मूल स्वर द्विवेदी युगीन ही है, किन्तु छायावाद युग के अतीत प्रेम, सहज रहस्यमयता और लाक्षणिकता के महत्त्व को इन लेखकों ने भी स्वीकार किया है।

छायावादोत्तर-युगीन गद्य –

सन् 1936 के बाद देश की स्थिति में तेजी से परिवर्तन आरम्भ हुआ, सन् 1937 में कांग्रेस ने पूरे देश में अपने व्यापक प्रभाव का परिचय देते हुए छह प्रान्तों में अपना मंत्रिमंडल बना लिया।

एक बार ऐसा लगा कि हम स्वतंत्रता के द्वार पर खड़े हैं, किन्तु शीघ्र ही निराश होना पड़ा। सन् 1939 में द्वितीय महायुद्ध आरम्भ हो गया।

कांग्रेस ने इंग्लैण्ड को युद्ध में सहायता देना इस शर्त पर स्वीकार किया कि वह शीघ्र भारत में एक स्वतंत्र जनतंत्रवादी सरकार की स्थापना करे, ब्रिटिश सरकार की ओर से कोई संतोषजनक प्रतिक्रिया न होने पर सन् 1939 में कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया।

सन् 1940 में आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ किया गया, सन् 1942 में ‘क्रिप्स मिशन’ भारत आया और अपने उद्देश्य में असफल रहा।

इसी वर्ष कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो’ का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया, देश में उग्र आन्दोलन हुआ और ब्रिटिश सरकार ने उसका पूरी शक्ति से दमन किया, सन् 1945 में महायुद्ध समाप्त हुआ, सन् 1947 में भारत में विदेशी सत्ता का अन्त हुआ किन्तु इसके साथ ही देश का विभाजन भी हो गया।

विभाजन के परिणाम यह हुआ कि पूरे देश में भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुए और देश की जनता तबाह हुई, देश का विभाजन लाखों लोगों के लिए स्थाई तौर पर दर्द और पीड़ा का कारण बना, इन घटनाओं ने हिन्दी साहित्य को बहुत दूर तक प्रभावित किया।

राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना से प्रेरित लेखकों ने भी क्रमशः यथार्थवादी जीवन-दर्शन को महत्त्व देना आरम्भ किया, छायावादी युग के कई लेखक नयी भूमि पर पदार्पण कर नवीन युग चेतना के अनुसार साहित्य रचना में प्रवृत्त हुए। फलस्वरूप सन् 1938 के बाद ‘छायावाद’ का अन्त हुआ।

उसके बाद के साहित्य को छायावादोत्तर साहित्य कहा गया है, छायावादोत्तर-युग के साहित्यकार स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व से लिखते आ रहे थे और उसके बाद भी सक्रिय रहे हैं।

इनमें आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, शान्तिप्रिय द्विवेदी नारीसिंह दिनकर शपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, जैनेन्द्र, ‘अज्ञेय’, नगेन्द्र, रामवृक्ष बेनीपुरी, बनारसीदास चतुर्वेदी, वासुदेवशरण अग्रवाल, कन्हैयालाल मिश्र “प्रभाकर”, भगवतशरण उपाध्याय आदि गद्य लेखक है।

स्वातन्त्र्योत्तर – युगीन गद्य –

भारतीय स्वतंत्रता के बाद के लेखकों में विद्यानिवास मिश्र, हरिशंकर परसाई, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, कुबेरनाथ राय, धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह आदि प्रमुख है।

विद्यानिवास मिश्र अपनी मांगलिक दृष्टि, सांस्कृतिक चेतना, लोक-सम्पृक्ति एवं आधुनिक जीवन-बोध के लिए प्रसिद्ध हैं, उनका गद्य उनके व्यक्तित्त्व को साकार कर देता है, तो वहीं हरिशंकर परसाई ने सामाजिक और राजनीतिक जीवन की विसंगतियों पर तीखा व्यंग्य रचा है, परसाई जी के लिए ये कथन बिल्कुल सटीक बैठता है कि उन्होंने हिन्दी गद्य की व्यंग्य क्षमता को निखारा है।

‘रेणु’ का गद्य ध्वनि-बिम्बों के माध्यम से वातावरण को सजीव बनाने में सक्षम है, तो वहीं कुबेरनाथ राय ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की गद्य-परम्परा को आगे बढ़ाया है। प्राचीन सांस्कृतिक एवं साहित्यिक सन्दर्भों को नयी अर्थवत्ता प्रदान करके श्री राय ने हिन्दी गद्य को नयी भाव-भूमि प्रदान की है।

धर्मवीर भारती गंभीर एवं विचारपूर्ण गद्य लिखते रहे हैं, यात्रावृत्त, रिपोर्ताज तथा व्यंग्य-विद्रूप लिखकर उन्होंने अपने गद्य को अपेक्षाकृत हल्की मनःस्थितियों से जोड़ने की चेष्टा की है।

शिवप्रसाद सिंह लोक-चेतना से सम्पृक्त होते हुए भी व्यापक दृष्टि-सम्पन्न लेखक हैं। उनका गद्य मानव सम्बन्धी चेतना का वाहक है। इन लेखकों ने हिन्दी गद्य को सशक्त बनाया है, उसकी शब्द-सम्पदा में वृद्धि की है।

उसे जीवन की बाह्य परिस्थितियों, सामाजिक सम्बन्धों, विसंगतियों, आधुनिक मानव के आंतरिक द्वन्द्वों एवं तनावों को व्यक्त करने में सक्षम बनाया है, अनेक नवीन कलात्मक गद्य-विधाओं का विकास किया है और सब मिला कर उसे राष्ट्रीय गरिमा प्रदान की है।

अब हिन्दीतर प्रदेशों के लेखक भी हिन्दी में रुचि लेने लगे हैं, विदेशों में भी हिन्दी का प्रचार बढ़ रहा है, हिन्दी का भविष्य अब उज्ज्वल है और उसके विश्व-स्तर पर प्रतिष्ठित होने की संभावना बढ़ गयी है।

हिंदी गद्य की प्रमुख विधाएँ –

रंगमंच पर अभिनय द्वारा प्रस्तुत करने की दृष्टि से लिखी गयी तथा पात्रों एवं संवादों पर आधारित एक से अधिक अंकों वाली दृश्यात्मक साहित्यिक रचना को नाटक कहते हैं।

नाटक वस्तुतः रूपक का एक भेद है, रूप का आरोप होने के कारण नाटक को रूपक कहा गया है, अभिनय के समय नट पर दुष्यन्त या राम जैसे ऐतिहासिक पात्र का आरोप किया जाता है, इसीलिए इसे रूपक कहते हैं।

नट (अभिनेता) से सम्बद्ध होने के कारण इसे नाटक कहते हैं, नाटक में ऐतिहासिक पात्र विशेष की शारीरिक, एवं मानसिक अवस्था का अनुकरण किया जाता है।

आज के समय में नाटक शब्द अंग्रेजी ‘ड्रामा’ या ‘प्ले’ का पर्याय बन गया है, हिन्दी में मौलिक नाटकों का आरम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है।

द्विवेदी युग में इसका अधिक विकास नहीं हुआ। छायावाद-युग में जयशंकर प्रसाद ने ऐतिहासिक नाटकों के विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया, छायावादोत्तर-युग में लक्ष्मी नारायण मिश्र, उदयशंकर भट्ट, उपेन्द्रनाथ अश्क, सेठ गोविन्ददास, डॉ० रामकुमार वर्मा, जगदीशचन्द्र माथुर, मोहन राकेश आदि ने इस विधा को विकसित किया है।

नाटकों का एक महत्त्वपूर्ण रूप एकांकी है, ‘एकांकी’ किसी एक महत्त्वपूर्ण घटना, परिस्थिति या समस्या को आधार बनाकर लिखा जाता है और उसकी समाप्ति एक ही अंक (भाग) में उस घटना के चरम क्षणों को मूर्त करते हुए कर दी जाती है, हिन्दी साहित्य में एकांकी नाटकों का विकास छायावाद युग से माना जाता है।

उपन्यास –

हिन्दी भाषा में ‘उपन्यास’ शब्द का आविर्भाव संस्कृत के शब्द “उपन्यस्त” से हुआ है, उपन्यास शब्द का शाब्दिक अर्थ है- “सामने रखना” उपन्यास में ‘प्रसादन’ अर्थात् प्रसन्न करने का भाव भी निहित है।

अर्थात इसे यूं समझे कि किसी घटना को इस प्रकार सामने रखना कि उससे दूसरों को प्रसन्नता हो, उपन्यस्त करना कहा जायेगा, किन्तु इस अर्थ में ‘उपन्यास’ का प्रयोग आजकल नहीं होता।

आज के समय में हिन्दी में ‘उपन्यास’ अंग्रेजी के शब्द ‘नावेल’ का पर्याय बन गया है, हिन्दी का पहला मौलिक उपन्यास लाला श्रीनिवासदास कृत ‘परीक्षा गुरु’ माना जाता है।

प्रेमचन्दजी ने हिन्दी उपन्यास को सामयिक सामाजिक जीवन से सम्बद्ध करके एक नया मोड़ दिया था, वे ‘उपन्यास’ को मानव – चरित्र का चित्र समझते थे, उनकी दृष्टि में ‘मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल उद्देश्य होता है।

अगर संक्षेप में कहा जाए तो उपन्यास गद्य साहित्य की वह महत्त्वपूर्ण कलात्मक विधा है जो मनुष्य को उसकी समग्रता में व्यक्त करने में समर्थ है।

कहानी –

जीवन के किसी मार्मिक तथ्य या घटना को नाटकीय प्रभाव के साथ व्यक्त करने वाली, अपने में पूर्ण कलात्मक गद्य-विधा को “कहानी” कहते है।

हिन्दी साहित्य में मौलिक कहानियों का आरम्भ ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के बाद हुआ कहानी या आख्यायिका हमारे देश के लिए नयी चीज नहीं है, पुराणों में शिक्षा नीति एवं हास्य-प्रधान अनेक आख्यायिकाएँ उपलब्ध होती हैं, किन्तु आधुनिक साहित्यिक कहानियाँ उद्देश्य और शिला में उनसे अलग है।

आधुनिक कहानी जीवन के किसी मार्मिक तथ्य या घटना को नाटकीय प्रभाव के साथ व्यक्त करने वाली अपने में पूर्ण कलात्मक एक गद्य विधा है जो पाठक को अपनी वास्तविकता और मनोवैज्ञानिकता के कारण निश्चित रूप से प्रभावित करती है।

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