Tulsidas Ka Jivan Parichay – तुलसीदास जीवन परिचय एवं रचनाएं तथा इससे जुड़े प्रश्नोत्तर

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हिंदी साहित्य में अपनी अद्वितीय भूमिका के लिए “तुलसीदास जी” का एक महत्वपूर्ण स्थान है, उनकी रचनाएं न सिर्फ आज सभी के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि “रामचरितमानस” जैसे ग्रंथ के माध्यम से तुलसीदास हिंदी साहित्य के एक चमकीले नक्षत्र के रूप में हमेशा याद किये जाएंगे।

Hello Friends, स्वागत है आपका हमारे ब्लॉग पर आज हम तुलसीदास जी के जीवन परिचय (Tulsidas Ka Jivan Parichay) के बारे में बात करेंगे, साथ ही इससे जुड़े प्रश्नों और उनके उत्तर के ऊपर भी चर्चा करेंगे।

Tulsidas Ka Jivan Parichay
Tulsidas Ka Jivan Parichay, तुलसीदास का जीवन परिचय

तुलसीदास का जीवन परिचय (Tulsidas Ka Jivan Parichay) –

तुलसीदास का जीवन परिचय (Tulsidas Ka Jivan Parichay), तुलसीदास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के वर्तमान बांदा जिले के राजापुर नामक गाँव में हुआ था, इनके पिता का नाम ‘आत्माराम दुबे’ एवं माता का नाम ‘हुलसी’ था।

तुलसीदास जी के जन्म के संबंध में विद्वानों में बहुत मतभेद है, गोस्वामी तुलसीदास जी के जन्म स्थान के बारे में तीन मत प्रचलित है – ‘मूल गोंसाई चरित’ और ‘तुलसी चरित’ इनका जन्म स्थान राजापुर बताया गया है, ‘शिवसिंह सेंगर’ और ‘राम गुलाम द्विवेदी’ भी राजापुर को गोस्वामी जी का जन्म स्थान मानते है।

लल सीताराम, गौरीशंकर द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी, तथा डॉ रामदत्त भारद्वाज “सोरों” को तुलसी जी का जन्म स्थान मानते है।

मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सुकरखेत” – गोस्वामी जी के द्वारा कहे गए इस कथन को ये विद्वान प्रमाण के रूप में मानते हुए सुकर खेत का अर्थ “सोरों” मानते है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मानना है कि “सूकर खेत” को भ्रम से ‘सोरों’ समझ लिया गया, लेकिन प्रचलित रूप में गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म संवत् 1554 वी0 की श्रावण शुक्लपक्ष सप्तमी को चित्रकूट जिले के अंतर्गत राजापुर ग्राम में माना जाता है, तुलसीदास जी के जन्म स्थान के संबंध में निम्न दोहा प्रचलित है –

“पंद्रह सौ चौवन बिसे, कालिंदी के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयो शरीर।।”

जब इनका जन्म हुआ तब ये पाँच वर्ष के बालक मालूम होते थे, इनके मुँह में सभी दांत मौजूद थे, जन्मते ही इनके मुख से ‘राम’ का शब्द निकलाऔर लोग इन्हें “रामबोला” कहने लगे।

माँ जन्म देने के दूसरे दिन ही चल बसी आश्चर्यचकित होकर इन्हें राक्षस समझकर द्वारा पिता किसी अनिष्ट की आशंका से बचने के लिए बालक को चुनियाँ नाम की दासी को सौंप दिया।

पिता द्वारा त्याग दिए जाने के कारण इनका पालन-पोषण एक दासी ने किया और ज्ञान की शिक्षा प्रसिद्ध संत बाबा “नरहरिदास” ने प्रदान की। (Tulsidas Ka Jivan Parichay)

तुलसीदास जी का बचपन –

रामबोला जब साढ़े पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही, वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों करर तरह जीवन जीने को मजबूर हुआ, जीवन की इन कठिन चुनौतियों की वजह से रामबोला का जीवन बड़े कष्ट से होकर गुजरा।

इन्हें भीख मांगकर अपना गुजर करना पड़ा, इसी बीच इनका परिचय कुछ श्री राम भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन करने का अवसर मिला।

इस प्रकार साधुओं के बीच रहकर समाज की तत्कालीन स्थिति से इनका संपर्क हुआ, जिसके बाद ज्ञान अर्जन करने का भी अवसर मिला

Tulsidas Ka Jivan Parichay
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तुलसीदास जी का विवाह –

साधुओं के बीच रहकर रामबोला चर्चित हो चुके थे, इसी दौरान रामशैल पर रहने वाले बाबा नरहरिदास ने इस बालक का विधिवत नाम “तुलसीदास” रखा, राम मंत्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर विद्या अध्ययन कराया।

तुलसीदास जी की बुद्धि बड़ी ही तीव्र थी, वे जो कुछ भी गुरु से सुनते थे उसे कंठष्ठ कर लिया करते थे।

29 वर्ष की उम्र में इनका विवाह राजापुर से थोड़ी दूरी पर यमुना नदी के दूसरी तरफ गाँव की एक अत्यंत सुंदर कन्या “रत्नावली” के साथ इनका विवाह हुआ।

विवाह के बाद जीवन सरल रूप से चल रहा था, लेकिन एक दिन रत्नावली अपने मायके चली गईं, उनका मायके जाने का वियोग तुलसी को सहन नहीं हुआ और एक दिन रात के समय खुद को रोक नहीं पाए।

बिना कुछ सोचे समझे घनघोर रात की मूसलाधार बारिश में ही एक शव (लाश) को लकड़ी का टुकड़ा समझकर, बाढ़ से उफनती यमुना नदी तैरकर पार कर गए।

रत्नावली के गाँव पहुँचें और ससुराल में घर के पास पेड पर लटके सांप को रस्सी समझकर उसे पकड़कर ऊपर चढ़ गए और अपनी पत्नी के कमरे में पहुँच गए।

उनके इस कृत्य पर रत्नावली ने उन्हें बहुत फटकार लगाई और धिक्कारा तथा भाव भरे मार्मिक स्वर में खुद के द्वारा रचित दोहा सुनाया –

लाज न आवत आपको दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थिचर्ममय देह यह ता पर ऐसी प्रीति।
तिसु आधो रघुबीरपद तो न होति भवभीति॥

अर्थात, आपको लज्जा नहीं आई जो दौड़ते हुए मेरे पास आ गए, हे नाथ! अब मैं आपसे क्या कहूँ, आपके ऐसे प्रेम पर धिक्कार है, जितना प्रेम आप मेरे प्रति दिखा रहे हैं उसका आधा प्रेम भी अगर आप प्रभु श्रीराम के प्रति दिखाते, तो आप इस संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति पा जायें। इस हाड़-माँस की देह की देह के प्रति प्रेम और मोह करने से कोई लाभ नहीं है। यदि आपको प्रेम करना है, तो प्रभु श्रीराम से कीजिए, जिनकी भक्ति से आप संसार के भय से मुक्त हो जाएंगे और आपको मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी।

यह सुनने के बाद तुलसी अवाक रह गए और उनके ज्ञान नेत्र खुल गए, उस समय उन्हें अपनी मूर्खता का एहसास हुआ और बिना समय गंवाये वहाँ से चले गए, उनका ह्रदय परिवर्तन हो गया , पत्नी के द्वारा कहे गए इन्हीं शब्दों की शक्ति ने तुलसी को महान बना दिया।

पत्नी के द्वारा फटकार लगाने के बाद इन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ और यहाँ से इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया, इसके बाद ये घर छोड़कर चले गए और बाकी का अधिकांश जीवन चित्रकूट काशी और अयोध्या में बिताया।

तुलसीदास जी की मृत्यु –

वैराग्य लेने के बाद तुलसी जी ने काशी के विद्वान शेष सनातन से वेद-वेदांग का ज्ञान प्राप्त किया और अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुए राम के पवित्र चरित्र का गान करने लगे, तुलसीदस जी का ज्यादातर समय चित्रकूट, अयोध्या और काशी में व्यतीत हुआ।

काशी के विख्यात अस्सी घाट पर रहने के दौरान संवत 1680 में श्रावण कृष्ण पक्ष तृतीया शनिवार को अस्सीघाट पर राम-राम कहते हुए परमात्मा में विलीन हो गए, गोस्वामी तुलसीदास के मृत्यु के संबंध में एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है –

संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर।

Tulsidas Ka Jivan Parichay
गोस्वामी तुलसीदास (Tulsidas Ka Jivan Parichay, तुलसीदास का जीवन परिचय)

रचनाएं –

तुलसी जी राम के भक्त थे और इनकी भक्ति दास्य भाव की थी, संवत् 1631 में इन्होंने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ की रचना आरंभ की, इस ग्रंथ में श्रीराम जी के बारे में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

तुलसी के राम में शक्ति, शील और सौन्दर्य तीनों गुणों का अपूर्व सामंजस्य है, मानव जीवन के सभी उच्चादर्शों का समावेश करके इन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया है।

अवधि भाषा में तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस बहुत ही लोकप्रिय ग्रंथ है, विश्व साहित्य के ग्रंथों में इसकी गणना की जाती है, इसके अलावा इन्होनें “रामलला नहछू“, “रामाज्ञा प्रश्न“, “जानकी मंगल”, “पार्वती मंगल”, “बरवै रामायण”, “कृष्ण गीतावली”, “दोहावली” “विनय पत्रिका” तथा “वैराग्य संदीपनी” सहित कुल 37 ग्रंथों की रचनाएं की, इनकी रचनाओं में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण चित्रण देखने को मिलता है। (Tulsidas Ka Jivan Parichay)

काव्यगत विशेषताएं –

अपने समय तक प्रचलित दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, पद आदि काव्य शैलियों में तुलसी ने पूर्ण सफलता के साथ काव्य रचना की है।

दोहावली में दोहा पद्धति, रामचरितमानस में दोहा-चौपाई पद्धति, विनय पत्रिका में गीति पद्धति, कवितावली में कवित्त-सवैया पद्धति को अपनाया है और इन सभी शैलियों में अद्भुत सफलता मिली है।

यह तुलसी जी की सर्वतोमुखी प्रतिभा तथा काव्यशास्त्र में इनकी गहन अंतर्दृष्टि की परिचायक है, काव्य में भावपक्ष के साथ-साथ कला पक्ष की भी पूर्णता है।

भावपक्ष की विशेषताएं –

युगीन परिस्थिति में गोस्वामी जी का योगदान – तुलसीदास जिस काल में उत्पन्न हुए, उस समय हिन्दू जाति, धार्मिक और राजनीतिक अधोगति को पहुँच चुकी थी।

हिंदुओं का धर्म और आत्म सम्मान यवनों के अत्याचारों से कुचला जा रहा था, सब ओर निराशा का वातावरण व्याप्त था, ऐसे समय में अवतरित होकर गोस्वामी जी ने जनता के समाने भगवान का लोकरक्षक प्रस्तुत किया।

जिन्होंने यवन शाशकों से कहीं अधिक शक्तिशाली रावण को केवल वानरों के सहारे ही कुल सहित नष्ट कर दिया।

रामराज्य के रूप में एक आदर्श राज्य की कल्पना – तुलसीदास ने एक आदर्श राज्य की कल्पना रामराज्य (Ramrajya) के रूप में लोगों के सामने रखी, इस आदर्श राज्य का आधार है – आदर्श परिवार।

मनुष्य को चरित्र निर्माण की शिक्षा परिवार में ही सबसे पहले मिलती है, उन्होंने “श्रीरामचरितमानस” के द्वारा व्यक्ति के स्तर से लेकर, समाज और राज्य तक के समस्त अंगों का आदर्श रूप प्रस्तुत किया और इस प्रकार निराश जंसमाज को प्रेरणा देकर रामराज्य के चरम आदर्श तक पहुँचने का मार्ग दिखाया।

लोकभाषा को ग्रहण – तुलसीदास ने पंडितों की भाषा संस्कृत के स्थान पर जनता की भाषा में अपने ग्रंथ की रचना की, जिससे राजा और रंक (गरीब) सबको अपना जीवन सुधारने का सहारा मिल।

“मानस” में समस्त वेद, पुराण, शास्त्र एवं काव्यग्रंथों का निचोड़ सरल-से-सरल रीति से प्रस्तुत किया गया है, धर्म की दृष्टि से यदि यह एक महान धर्मग्रंथ है तो काव्य की दृष्टि से रक मनोरंजक कथा भी है।

भक्ति भावना – तुलसीदास जी की भक्ति दास्यभाव की

थी, जिसमें स्वामी को पूर्ण समर्पित एवं अनन्य भाव से भजा जाता है, तुलसी के राम शक्ति, शील, और सौन्दर्य तीनों के चरम उत्कर्ष है, तुलसी ने चटक को प्रेम का आदर्श माना है –

एक भरोसे एक बल, एक आस बिस्वास।
एक घनस्याम हित, चातक तुलसीदास॥

समन्वय भावना – तुलसी द्वारा राम के चरित्र चित्रण में मानव जीवन के सभी पक्षों एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति हुई है, उन्होंने भक्ति ज्ञान औ कर्म तीनों में सामंजस्य स्थापित किया, शिव और राम को एक-दूसरे का उपास्य-उपासक बताकर इन्होंने उस काल में बढ़ते हुए शैव-वैष्णव विद्वेष को समाप्त किया।

तुलसी का वैशिष्टय – यद्यपि नम्रतावश तुलसी ने अपने को कवि नहीं माना, पर काव्यशास्त्र के सभी लक्षणों से युक्त इनकी रचनाएं हिंदी का गौरव है।

प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य दोनों की रचना में इन्हें अद्वितीय सफलता मिली है, “मानस” में कथा संघटन, चरित्र चित्रण, मार्मिक स्थलों की पहचान, संवादों की सरसता आदि सभी कुछ अद्भुत है।

रस योजना – तुलसी के काव्य में नाव रसों की बड़ी ह्रदयग्राही योजना मिलती है, शृंगार का जैसा मर्यादित वर्णन इन्होंने किया है, वैसा आज तक किसी दूसरे कवि से न बन पड़ा।

स्वामी-सेवक भाव की भक्ति में विनय और दीनता का स्वभाविक योग रहता है, विनय और दीनता का भाव तुलसी में चरम सीमा तक पहुँचा है।

अत्यंत दीन भाव से वे राम को विनय से पूर्ण पत्रिका लिखते है, ‘वीर रस’ का उल्लेख भरत के चित्रकूट जाते समय निषादराज के वचन में मिलता है। रौद्र रस का वर्णन कैकेयी- दशरथ-प्रसंग में एवं भरत के चित्रकूट पहुँचने के समाचार पर लक्ष्मण के कोप के रूप में मिलता है। इसके अतिरिक्त कवितावली’ के सुन्दरकाण्ड और युद्धकाण्ड में इसकी प्रभावशाली व्यंजना हुई है।

प्रकृति वर्णन – तुलसीदास जी ने अपने काव्यों में प्रकृति के अनेक मनोहारी दृश्य चित्रित किये हैं, इनकी रचनाओं में प्रकृति उद्दीपन, आलम्बन, उपदेशात्मक, आलंकारिक एवं मानवीय रूपों में उपस्थिति देखने को मिलती है।

बोलत जल कुक्कुट कलहंसा । प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥

कल्याण- भावना एवं स्वान्तः सुखाय रचना- तुलसीदास ने अपने सुख के लिए काव्य-रचना की है। उन्हें क्योंकि श्रीराम प्रिय थे, इसलिए उन्होंने अपने अंतर्मन के सुख के लिए राम और उनके चरणों की महिमा का गुणगान अपने काव्य में किया।

संगीतज्ञता – राग-रागिनियों में गाये जाने योग्य अगणित सरस पदों की रचनाओं के माध्यम से तुलसीदास जी ने अपने उच्चकोटि के संगीतज्ञ होने का प्रमाण भी दे दिया।

कलापक्ष की विशेषताएँ –

भाषा – गोस्वामी जी ने अपने समय की प्रचलित दोनों काव्य भाषाओं-अवधी और ब्रज में समान अधिकार से रचना की है। यदि ‘श्रीरामचरितमानस’, ‘रामलला नहछु’, ‘बरवै रामायण’, ‘जानकी मंगल’ और पार्वती मंगल’ में अवधी की अद्भुत मिठास है तो विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कवितावली’ में मॅझी हुई ब्रजभाषा का सौन्दर्य देखते ही बनता है। भाषा शुद्धं, संस्कृतनिष्ठ तथा प्रसंगानुसारिणी है।

संवाद योजना- गोस्वामी जी ने अपने काव्य को नाटकीयता प्रदान करने के लिए जिन तत्वों का उपयोग किया है, उनमें संवाद-योजना सबसे प्रमुख माध्यम है, अयोध्याकाण्ड संवादों की दृष्टि से विशेष समृद्ध है, जिसमें राम-लक्ष्मण संवाद, केवट-राम संवाद, राम-कौशल्या-संवाद, राम-सीता-संवाद, कैकेयी-मन्थरा-संवाद, कैकेयी-दशरथ-संवाद तथा चित्रकूट के मार्ग में ग्रामवधूटियों का संवाद।

इन सभी संवादों में विभिन्न परिस्थितियों में पड़े भिन्न-भिन्न पात्रों के मनोभावों के सूक्ष्म उतार-चढ़ाव का बड़ी विदग्धता से चित्रण किया गया है, इतना ही नहीं कैकेयी-मन्थरा का संवाद तो अपनी मनोवैज्ञानिकता के लिए विशेष प्रसिद्ध है।

शैली – तुलसीदास जी के समय तक जिन पाँच प्रकार की शैलियों में काव्य-रचना होती थी, वे कुछ इस प्रकार थीं –

(1) भाटों की कवित्त-सवैया शैली,
(2) रहीम की बरवै शैली,
(3) जायसी की दोहा-चौपाई शैली
(4) सूर की गेय-पद (गीतिकाव्य) शैली,
(5) वीरगाथाकाल की छप्पय शैली

रसानुरूप शैली के प्रयोग की दृष्टि से देखा जाए तो तुलसीदस अतुल्य हैं, रति, करुणा आदि कोमल भावों की व्यंजना में उन्होंने प्रायः समासरहित, मधुर, कोमलकान्त पदावली का व्यवहार किया है, जब कि वीर, रौद्र, वीभत्स आदि रसों के प्रसंग में समासयुक्त एवं कठोर पदावली का प्रयोग किया है, कहीं-कहीं पर शब्दों की केवल ध्वनि मात्र से तुलसी कठोर-से-कठोर और मृदुल-से-मृदुल भावों और दृश्यों का साक्षात्कार कराने में बड़े कुशल हैं।

छन्द-प्रयोग – तुलसीदास छन्दशास्त्र के पारंगत विद्वान् थे। उन्होंने विविध छन्दों में काव्य-रचना की है। ‘अयोध्याकाण्ड में गोस्वामी जी ने दोहा, सोरठा, चौपाई और हरिगीतिका छन्दों का प्रयोग किया है। चौपाई छन्द कथा-प्रवाह को बढ़ाते चलने के लिए बहुत उपयोगी होता है। दोहा या सोरठा इस प्रवाह •को सुखद विश्राम प्रदान करते हैं। हरिगीतिका छन्द वैविध्य प्रदान करे वातावरण की सृष्टि में सहायक सिद्ध होता है।

अलंकार – विधान – अलंकारों का विधान वस्तुत: रूप, गुण, क्रिया का प्रभाव तीव्र करने के लिए होना चाहिए न कि चमत्कार प्रदर्शन के लिए। गोस्वामी जी का अलंकार-विधान बड़ा ही सहज और हृदयग्राही बन पड़ा है, जो रूप, गुण व क्रिया का प्रभाव तीव्र करता है। निम्नांकित उद्धरण में अनुप्रास की छटा द्रष्टव्य है

कलिकाल बेहाल किये मनुजा नहिं मानत कोई अनुजा तनुजा ॥

अलंकारों में गोस्वामी जी के सर्वाधिक प्रिय अलंकार हैं- उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक। संस्कृत में कालिदास की उपमाएँ विख्यात हैं। तुलसी अपनी कुछ श्रेष्ठ उपमाओं में कालिदास से भी बाजी मार ले गये हैं

अबला कच भूषण भूरि छुधा । धनहीन दुःखी ममता बहुधा ।।

इसके अतिरिक्त इन्होंने सन्देह, प्रतीप, उल्लेख, व्यतिरेक, परिणाम, अन्वय, श्लेष, असंगति, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों के प्रयोग भी किये हैं।

तुलसीदस जी का साहित्य में स्थान- इस प्रकार रस, भाषा, छन्द, अलंकार, नाटकीयता, संवाद कौशल आदि सभी दृष्टियों से तुलसी का काव्य अद्वितीय है, कविता-कामिनी उनको पाकर धन्य हो गयी। हरिप्रसाद “हरिऔध” जी की निम्नलिखित विचार उनके बारे में सटीक वर्णन करते है –

“कविता करके तुलसी न लसे। कविता लसी पा तुलसी की कला ॥”

तुलसीदास का जीवन परिचय (Tulsidas Ka Jivan Parichay) के बारे में विस्तारपूर्वक जानने के लिए, इस विडिओ को देख सकते है –

तुलसीदास जी के बचपन का नाम रामबोला था, इनका जन्म असाधारण हुआ था और माँ के गर्भ में ये 12 महीने तक रहे थे, जन्मते ही ‘राम’ नाम पुकारा था, इसलिए इनका नाम रामबोला पड़ गया।

तुलसीदास जी की पत्नी का नाम रत्नावली था।

तुलसीदास जी के जन्म के बारे में अनेक मत प्रचलित है, लेकिन “मूल गोंसाई चरित” और “तुलसी चरित” के अनुसार इनका जन्म उत्तर प्रदेश के वर्तमान बांदा जिले के राजापुर नामक गाँव में हुआ था।

तुलसीदास जी के पिता का नाम ‘आत्माराम दुबे’ एवं माता का नाम ‘हुलसी’ था।

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